भारतीय संविधान- एक जीवंत दस्तावेज़


सामान्य अवधारणा के अनुसार, संविधान नियमों और उपनियमों का एक ऐसा लिखित दस्तावेज़ है, जिसके आधार पर किसी राष्ट्र की सरकार का संचालन किया जाता है। यह देश की राजनीतिक व्यवस्था का बुनियादी ढाँचा निर्धारित करता है। यह कहा जा सकता है कि प्रत्येक देश का संविधान उस देश के आदर्शों, उद्देश्यों व मूल्यों का संचित प्रतिबिंब होता है। संविधान एक जड़ दस्तावेज़ नहीं होता, बल्कि समय के साथ यह निरंतर विकसित होता रहता है। इस संदर्भ में भारतीय संविधान को एक प्रमुख उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। भारत में संविधान के निर्माण का श्रेय मुख्यतः संविधान सभा को दिया जाता है। संविधान सभा के गठन का विचार सर्वप्रथम वर्ष 1934 में वामपंथी नेता एम.एन. रॉय द्वारा दिया गया था। वर्ष 1946 में ‘क्रिप्स मिशन’ की असफलता के पश्चात् तीन सदस्यीय कैबिनेट मिशन को भारत भेजा गया। कैबिनेट मिशन द्वारा पारित एक प्रस्ताव के माध्यम से अंततः भारतीय संविधान के निर्माण के लिये एक बुनियादी ढाँचे का प्रारूप स्वीकार कर लिया गया, जिसे ‘संविधान सभा’ का नाम दिया गया। भारत का संविधान देश का सर्वोच्च कानून है। यह सरकार के मौलिक राजनीतिक सिद्धांतों, प्रक्रियाओं, प्रथाओं, अधिकारों, शक्तियों और कर्त्तव्यों का निर्धारण करता है। भारतीय संविधान दुनिया का सबसे लंबा लिखित संविधान है जो तत्त्वों और मूल भावना की दृष्टि से अद्वितीय है। मूल रूप से भारतीय संविधान में कुल 395 अनुच्छेद (22 भागों में विभाजित) और 8 अनुसूचियाँ थी, किंतु विभिन्न संशोधनों के परिणामस्वरूप वर्तमान में इसमें कुल 470 अनुच्छेद (25 भागों में विभाजित) और 12 अनुसूचियां हैं। संविधान के तीसरे भाग में 6 मौलिक अधिकारों का वर्णन किया गया है। वस्तुतः मौलिक अधिकार का मुख्य उद्देश्य राजनीतिक लोकतंत्र की भावना को प्रोत्साहन देना है। यह एक प्रकार से कार्यपालिका और विधायिका के मनमाने कानूनों पर निरोधक की तरह कार्य करता है। मौलिक अधिकारों के उल्लंघन की स्थिति में इन्हें न्यायालय के माध्यम से लागू किया जा सकता है। इसके अलावा भारतीय संविधान की धर्मनिरपेक्षता को भी इसकी एक प्रमुख विशेषता माना जाता है। धर्मनिरपेक्ष होने के कारण भारत में किसी एक धर्म को कोई विशेष मान्यता नहीं दी गई है। विदित हो कि वर्ष 1976 में 42वें संशोधन के माध्यम से संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द जोड़ा गया था। संविधान से संबंधित एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न संविधान की व्याख्या अथवा अर्थविवेचन से जुड़ा हुआ है। नियमों के अनुसार, सर्वोच्च न्यायालय संविधान का अंतिम व्यख्याकर्त्ता या अर्थविवेचनकर्त्ता है। सर्वोच्च न्यायालय ही संविधान में निहित प्रावधानों तथा उसमें उपयोग की गई शब्दावली के अर्थ एवं निहितार्थ के विषय में अंतिम कथन प्रस्तुत कर सकता है।

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