जब अंगद लंका मे भरे वीर राक्षसों के मध्य राम का शांति संदेश लेकर गये थे तो दूर तक एक आवाज गूंजी थी...... "शत्रु का दूत है"....... उधर अंगद पिता की मृत्यु के शोक में भी थे। चंद महीने पहले उनके पिता किष्किंधा नरेश बालि इन्हीं राम के हाथों मारे गये थे।
यह एक उपाय था राम का कि अंगद को इस मानसिक अवसाद से बाहर निकाला जाए और उनके अंदर एक गहरी समझ विकसित की जाए।
इसके पहले अंगद ने कोई बड़ा दायित्व का काम नहीं किया था।
किसी को भी अवसाद से निकालने का सबसे बेहतर विकल्प होता है उसको किसी जिम्मेदारी का भाग बना देना। अन्यथा क्या आवश्यकता थी कि रावण के किले के अंदर एक कम उम्र के वानर को भेजनी की।
यहां राम दशानन को एक अवसर और देना चाहते थे। वैसे यह पहला अवसर था जब राम अपने किसी शत्रु से संवाद करना चाहते थे, वरना इसके पहले खर-दूषण, यहाँ तक की बालि से भी राम ने कोई संवाद नहीं किया था।
यह युद्ध का नियम भी है की किसी चिंटू मंटू से बात ना की जाए जब तक सामने सरगना ना हो।
यहाँ अंगद बीच सभा मे खड़े थे और संवाद के नियम के अंतर्गत दूत ने अपना परिचय दिया परन्तु रावण बीच संवाद मे बोल बैठा ....
"मेरे और तेरे वनवासी राम की क्या तुलना?"
अंगद मानो यही सुनना चाहते थे, एक उद्दंड बालक की भांति उछल कर बोल बैठे "सही कहा आप ने उनकी और आप की क्या तुलना?"
इस संवाद को लेखक केशव दास ने अपनी रचना केशव कौमुदी मे छंद के माध्यम से कही है जो कुछ इस प्रकार है ....
सिंधु तर्यो उनको बनरा,
तुसपै धनुरेख गई न तरी।
सुन लंकेश उनका बनरा भी सिंधु लांघ गया (सनद रहे बानर को बनरा कहा गया है जो भोजपुरी और अवधी का शब्द है) और तुमसे धनुरेख यानी की वो रेखा जो लक्ष्मण ने अपनी धनुष से खींची थी वो भी नही लांघी गयी।
ये चंद पंक्तियाँ राम और रावण के अंतर को स्पष्ट करतीं हैं !! आगे केशव जी कहते हैं कि...
बाँदर बाँधत सो न बँध्यो
उन बारिधि बाँधि कै बाट करी॥
श्री रघुनाथ-प्रताप की बात तुम्हैं
दसकंठ न जानि परी।
तेलहु तूलहू पूँछि जरी न जरी,
जरी लंक जराई जरी॥
और एक बंदर को तुम्हारी पूरी लंका मिलकर नहीं बांध पाई और तुम रघुनाथ को बांधने की सोचते हो???? तुझे रघुनाथ का प्रताप दिखाई नही दे रहा है दसकंधर, तूने पूंछ जलाने के लिए पूरी लंका का तेल लगा दिया और मूर्ख फिर भी पूंछ ना जली और तेरी पूरी की पूरी लंका जल गयी।
ये संवाद बहुत अद्भुत है इसमे अंगद रावण को उसकी कमजोरियाँ बताते हैं जो की युद्ध के पहले किसी को हतोत्साह करने का सबसे बेहतरीन उपाय है।
अंगद ने बस रावण को ही उसकी कमजोरियाँ नहीं गिनाई अपितु पूरे लंका देश के धुरंधरों को चुनौती दे डाली और चुनैती देते समय एक बहुत बड़ी बात बोल दी.....
जौं मम चरन सकसि सठ टारी।
फिरहिं रामु सीता मैं हारी॥
अंगद ने रावण की बीच सभा मे चुनौती दी वचन दिया अगर कोई भी लंका का योद्धा हमारा चरन टार दिया यानी की हटा दिया तो मैं वचन देता हूँ की मेरे राम सीता को हार कर वापस चले जाएंगे।
ये युवा अंगद की वाक पटुता थी
अंगद का राम के प्रति विश्वास था।
राम में विश्वास बनाए रखिए और रावणों के दरबार में पैर जमाए रखिए।
० मूल पोस्ट : सूरज उपाध्याय
श. सांचि की पोस्ट से संपादित अंश
० हमें यह लेख श्री प्रमोद शर्मा जी के सौजन्य से प्राप्त हुआ है।
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