यश कीर्ति बल वीरता
वैभव की भरमार थी
अवधभूप दशरथ की
जगत में जयकार थी
ख्याति और प्रतिष्ठा
संपदा की कमी नहीं
एक रिक्तता फिरभी
'सूर्यवंश' में बनी रही
आस में विश्वास में
अवध की भूमि थी
रघुकुल की गोद
अभी भी सूनी थी
तीनों रानियाँ विह्वल
संतति को विकल थीं
अवधनरेश की चिंता
बढ़ती घोर प्रबल थी
यह सूर्यवंश का गौरव
आगे कौन बढ़ाएगा ?
क्या ये रघुकुल दीपक
साथ मेरे बुझ जाएगा?
वशिष्ट ने पीड़ा देखी
दशरथ को समझाया
और पुत्रेष्टि यज्ञ का
उपाय अखंड बताया
दूर जहाँ गिरिशिखरों में
महानदी का उद्गम है
अतिमनोहर उपवन में
श्रृंगऋषि का आश्रम है
जाओ राजन दीन बनके
मान गौरव क्षीण करके
सादर उनको ले आओ
महायज्ञ सम्पन्न कराओ
नग्न पाँव दशरथ नरेश
वनमार्ग में बढ़ चले हैं
सेना-अश्वहीन अवधेश
पदयात्रा कर चले हैं
गए भूपति ऋषि आश्रम
निजसुत की कामना लिए
अवधराज मुनि द्वार पर
भिक्षुक सम याचना किए
मुनिश्रेष्ठ ! कृपादृष्टि करें
निर्धन मैं आस पर चला
यज्ञ करें संग अवध चलें
याचक मैं द्वार पर खड़ा
ऋषि हुए प्रसन्न अस्तु कहे
वचन को वरदान कर चले
स्वीकार किए मुनि याचना
अवध को प्रस्थान कर चले
राजगृह में यज्ञ अलौकिक
अयोध्यानगरी हुई सुनहरी
जैसे बड़े अकाल के बाद
तप्त धरा में बरखा उतरी
फिर हुआ हवन सम्पूर्ण
अग्निदेव तब प्रकट हुए
आशीष स्वरूप भूप को
दिव्यखीर का पात्र दिए
प्रसाद शुभ मंगलकारी
रानियों ने ग्रहण किया
कौशल्या के गर्भगृह में
स्वयं हरि ने शरण लिया
चैत्रमास की तिथि नवमी
शुक्ल पक्ष का संगम था
पुनर्वसु के शुभ नक्षत्र में
जन्म हुआ रघुनन्दन का
पुलकायी अवधपुरी सारी
दशरथ-कौशल्या के साथ
मरुवर सघन मेघ उमड़े
जैसे वर्षों अकाल के बाद
शंखनाद हुए देवलोक में
घन व्योम पुष्प बरसाए
श्रीविष्णु तब शिशुरूप में
अवतरित मन्द मुस्काए
बालरूप छवि मनोहर
और श्यामल रंग सुहाए
अवध दुलारे पुरुषोत्तम
प्रभु 'राम' धरा पर आए
प्रभु 'राम' धरा पर आए
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