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भारतीय राजनीति में जातीय पहचान और अस्मिता की राजनीति के क्या मायने हैं, ये बात किसी से छिपी नहीं है.

 



भारतीय राजनीति में जातीय पहचान और अस्मिता की राजनीति के क्या मायने हैं, ये बात किसी से छिपी नहीं है.

नीतीश और उपेंद्र कुशवाहा के साथ आने के भी कई सियासी निहितार्थ तलाशे जा रहे हैं. फिर से लव-कुश समीकरण की बातें होने लगी हैं. (लव यानी कुर्मी और कुश यानी कुशवाहा).

सियासी पंडित ऐसा मानते हैं कि बिहार में तीन से चार फ़ीसदी कुर्मी और 12 से 13 फ़ीसदी कुशवहा या कोइरी समुदाय को साथ रखने को ही आम लोग लव-कुश समीकरण कहते हैं.

उपेंद्र कुशवाहा के फिर से नीतीश के साथ आ जाने के सवाल पर पत्रकार सुरूर अहमद कहते हैं, "देखिए यह पहला मौक़ा नहीं कि नीतीश और उपेंद्र साथ आए हैं. नीतीश इस कोशिश में हैं कि भाजपा के सामने वे मज़बूत दिखें. उनकी बार्गेनिंग पॉवर न घटे. यह सारी क़वायद इसलिए ही हो रही है. दोनों को एक-दूसरे की ज़रूरत है."

बिहार में जातीय व अस्मिता की राजनीति के साथ ही नीतीश और उपेंद्र के साथ आने पर शिवानंद तिवारी कहते हैं, "देखिए नीतीश कुमार आज जिस तरह आह्लादित दिखे, वह नीतीश के व्यक्तित्व की कमज़ोरी है. हल्कापन है. ठीक है कि उपेंद्र कुशवाहा आए हैं, अच्छा है कि आपकी पार्टी की ताक़त बढ़ी, लेकिन जिस तरह का भाव नीतीश ने दिखाया. ऐसा लगा जैसे उपेंद्र कुशवाहा के साथ आने से वे प्रधानमंत्री बन जाएँगे. अब इसमें यह भी देखना होगा कि उपेंद्र को बीते विधानसभा चुनाव में कितने वोट मिले? क्या सभी दलों में कुशवाहा समाज के लोग विधायक नहीं? ख़ुद नीतीश की पार्टी में क्या कुशवाहा समाज के प्रतिनिधि नहीं? क्या भाजपा और माले को कुशवाहा समाज के लोगों के वोट नहीं मिले?"

पिछले दिनों रालोसपा के प्रभारी प्रदेश अध्यक्ष बीरेंद्र कुशवाहा समेत दल के संस्थापक कई नेता राजद में शामिल हो गए थे. उस समय राजद ने कहा था कि रालोसपा के भीतर अब सिर्फ़ उपेंद्र कुशवाहा ही बच गए हैं.

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